मुनिश्री समता सागर जी महाराज ने पयुर्षण पर्व के सातवें दिन तप धर्म की व्याख्या
मन की इक्छाओ पर विजय पाना आसान नहीं
- कामनाओं का कलश तो कभी भरा ही नहीं जा सकता
- आत्म- शुद्धि का मार्ग है तप
- मुनिश्री समता सागर जी महाराज ने पयुर्षण पर्व के सातवें दिन तप धर्म की व्याख्या
नैनपुर . पयुर्षण पर्व के सातवें दिन को दशलक्षणों में इसे तप धर्म कहां जाता है। मुनिश्री समता सागर जी महाराज ने बताया कि दो तरह के मार्ग हैं, जिसमें एक साधन सम्पन्न, सुख सुविधा का मार्ग है मार्ग एक स्वतंत्र स्वाधीन, साधना का मार्ग है। भारतीय संस्कृति ने धर्म मार्ग के लिये साधन सम्पन्न नहीं किन्तु साधना सम्पन्न निरूपित किया है। यहाँ भोग को नहीं योग को त्याग को सम्मान मिला है। सारा संसार विषयासक्त है। यहाँ पर विषय-विरक्ति और आत्म अनुरक्ति बड़ी दुर्लभ है।
मुनिश्री समता सागर जी महाराज ने आगे बताया कि राग बहुत संसार में वैराग्य को पाना सचमुच ही बड़ा कठिन है। आज तप का दिन है। तप्यते इति तप: जो तपा जाय सो तप है। तप दोषों की निवृत्ति कराता है। आत्म- शुद्धि का मार्ग है तप। धूप में फल फकते हैं तो उनमें मिठास आ जाती है। आँच में भोजन पकता है तो स्वादिष्ट हो जाता है। अग्नि में तपकर स्वर्ण शुद्ध हो चमकने लगता है। अग्नि में तपकर पककर ही मिट्टी मंगलमय कुंभ का रूप ले लेती है। जी कुंभ गर्मी में सबकी प्यास तो बुझाता ही है सिर पर धारण करने का महान सम्मान भी पाता है। रात का मार्ग संसार में भटकाने बाला, पतन कराने वाला है किन्तु तपश्चरण का मार्ग उन्नत महान बनाने वाला है।
पशु से परमेश्वर बनने की कहानी तपश्चरण से जुड़ी है। मनुष्य का अतीत जीवन पशुता का जीवन रहा है और भविष्य पारमेश्वरी प्रभुता को पा सकता है। एक विचारक ने कहा है कि मनुष्य के पैर नरक के ऊपर है और सिर स्वर्ग से टकरा रहा है। बात सच है कि जब मनुष्य के पैरों का विचार करते हैं तो वह नरक के ऊपर का स्पर्श कर रहा है इसका मतलब यह है कि निकलकर तो आया है यह नरक से किन्तु अब प्रयास पुरुषार्थ करे तो स्वर्ग और सिद्धालय को प्राप्त कर सकता है। इसलिए मनुष्य के जीवन को पड़ाव कहा गया है, जिसमें अतीत पशुता और भविष्य में प्रभुता जिपी है।
भील से भगवान बनने की महावीर की जीवन कथा इसी का सार संदेश है। ऐसा संदेश जो उद्घोष करता है कि यदि हम साधना के मार्ग को अपनाते हैं तो कर से नारायण और निरंजन बन सकते है और यदि भौतिक सुख सुविधा, साधनों में उलझ गये तो हम ही स से चानर और नारकी भी बन सकते हैं। तप की इस सारी प्रक्रिया में इच्छाओं की निवृति ही काम प्रपोजन रही है। सम्यक्त्व की भूमिका में ज्ञानपूर्वक किया गया तप सार्थक होता है और ज्ञान वही सार्थक माना गया है जो तप की आंच में पक गया हो।
आचार्यों ने कहा है कि संयम की सिद्धि, राग का उच्छेद, कर्मों का नाश, ध्यान और आगम की प्राप्ति के लिये तप धारण किया जाता है। मन की इच्छाओं पर विजय पाना आसान बात नहीं है। कामनाओं का कलश तो कभी भरा ही नहीं जा सकता क्योंकि ऊपर से तो यह बहुत सुन्दर दिखता है पर उसके नीचे कोई आधार (पैडी) नहीं है। और ऐसी स्थिति में आप कितना ही भरते जाइये कलया खाली का खाली रहेगा। इसके लिए जरूरी है कि बाहय में साधना की विभिन्न पद्धतियों से तपश्चर्या की जाए और इस तपश्चर्या के माध्यम से अन्तरंग की कषायक इच्छा परिणामों को कुश करते हुए मन में विशुद्धता, निर्मलता प्रापा की जाए।
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