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नैनपुर के कारीगरों की अनदेखी से फूटा आक्रोशः

 


नैनपुर के कारीगरों की अनदेखी से फूटा आक्रोशः मछुआरे, बांस शिल्पी और कुम्हार समाज सरकारी संरक्षण के लिए तरसे


  • ढीमर, बंशकार और प्रजापति समाज के पारंपरिक व्यवसायों पर संकट गहराया 


  •  न संसाधन, न बाजार, न ही कोई सरकारी मदद

नैनपुर - वोकल फॉर लोकल और  आत्मनिर्भर भारत जैसे सरकारी नारों के बीच नैनपुर के ढीमर, बंशकार और प्रजापति कुम्हार समाज की हकीकत दिल दहला देने वाली है। ये तीनों समाज न सिर्फ नैनपुर की आर्थिक रचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं बल्कि इस क्षेत्र की सांस्कृतिक और पारंपरिक पहचान को भी जिंदा रखे हुए हैं। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इन कारीगर समाजों के पास न तो संसाधन हैं, न प्रशिक्षण, न ही बाजार से सीधा जुड़ाव

इनकी मेहनत, हुनर और परंपरा आज सरकारी उपेक्षा के चलते बर्बादी की कगार पर है। शासन-प्रशासन की चुप्पी ने इन समुदायों के आत्मसम्मान और आजीविका पर सीधा प्रहार किया है।



मछली पालन के विशेषज्ञ ढीमर समाज को नहीं मिल रहे तालाब और संसाधन


नैनपुर में ढीमर समाज के लोग वर्षों से तालाबों में मछली पालन कर अपना जीवन यापन करते आए हैं। लेकिन अब ये समाज सरकारी प्राथमिकता से बाहर हो चुका है। अधिकांश जलस्रोत निजी ठेकेदारों को सौंप दिए गए हैं, जिससे ढीमर समाज के पास खुद के लिए काम नहीं बचा। न तो मत्स्य बीज, न चारा, न कोई प्रशिक्षण उपलब्ध है।

बड़ी विडंबना यह है कि नैनपुर जैसे क्षेत्र में आज तक मछलियों के भंडारण के लिए एक भी कोल्ड स्टोरेज की सुविधा उपलब्ध नहीं कराई गई, जिससे यह समाज अपनी मेहनत की उपज को उचित मूल्य पर बेच भी नहीं पाता। अगर सरकार इन्हें प्राथमिकता दे, तो मत्स्य पालन क्षेत्र में यह समाज आत्मनिर्भरता की मिसाल बन सकता है।



बांस कारीगरी में निपुण बंशकार समाज को न कच्चा माल न बाजार

बंशकार समाज पीढ़ियों से बांस से बने उत्पादों जैसे डलिया, सुपा, टोकरी, झूले, परछाई, सूप, छाननी, बांस के फर्नीचर, पंखा, घर की सजावटी वस्तुएं आदि का निर्माण करता आ रहा है। लेकिन आज यह समाज बांस की भारी कीमतों से टूट चुका है। सरकारी आपूर्ति तंत्र न होने से इन्हें निजी व्यापारियों से महंगे दामों में कच्चा माल खरीदना पड़ता है।

न तो इन्हें किसी प्रकार की डिज़ाइन ट्रेनिंग दी जाती है, न ही उनके उत्पादों को विपणन या सरकारी मेलों तक पहुंचने का मौका मिलता है। यह स्थिति तब है जब राज्य और केंद्र दोनों स्तर पर हस्तशिल्प और शिल्पकारों के लिए कई योजनाएं घोषित हैं, लेकिन नैनपुर में इनका कोई असर नजर नहीं आता।



कुम्हारी परंपरा का गौरव रहे प्रजापति समाज के हाथ अब खाली

प्रजापति कुम्हार समाज का जीवन सदियों से मिट्टी के दीए, कुल्हड़, गमले, सुराही, मूर्तियां, तुलसी चौरा, पानी की हांडी, मटके, रसोई के बर्तन, सजावटी वस्तुएं, और धार्मिक उत्पाद बनाने में बीता है। दीपावली जैसे त्योहारों पर यही दीए और मिट्टी के सजावटी सामान लोगों के घरों में रोशनी लाते हैं।

लेकिन आज इन्हें न मिट्टी की आसान आपूर्ति मिल रही है, न आधुनिक उपकरण जैसे इलेक्ट्रिक चाक, पग्गा (भट्ठी), प्रेस मोल्ड मशीन या डिजाइनिंग डिजाइनिंग सहायता। ना ही कोई सरकारी योजना इनके उत्पादों की खरीदी सुनिश्चित करती है। परिणामस्वरूप, युवा पीढ़ी इस परंपरा से कटकर पलायन की ओर अग्रसर है।

सरकार और प्रशासन से बड़ा सवाल

यह हालात एक गंभीर सवाल उठाते हैं- क्या सरकार की योजनाएं केवल पोस्टर और भाषणों तक सीमित हैं? जब नैनपुर जैसे कस्बे में पारंपरिक कारीगर समुदाय आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, तो विकास की बात खोखली लगती है।

अगर सरकार वास्तव में वोकल फॉर लोकल चाहती है, तो उसे ढीमर समाज को तालाबों में प्राथमिकता, मत्स्य बीज, कोल्ड स्टोरेज और प्रशिक्षण सुविधा देनी होगी। बंशकार समाज को सस्ती दर पर बांस, डिज़ाइन ट्रेनिंग और विपणन मंच से जोड़ना होगा। वहीं प्रजापति समाज को आधुनिक उपकरण, मिट्टी आपूर्ति, प्रशिक्षण और सरकारी खरीदी की स्थायी व्यवस्था दी जानी चाहिए।

संस्कृति और रोजगार दोनों को बचाना जरूरी

यह समाज सिर्फ हुनरमंद नहीं, बल्कि भारत की जीवंत परंपराओं के संवाहक है। इनकी कला को बचाना केवल रोजगार नहीं, बल्कि संस्कृति और आत्मनिर्भरता की रक्षा है। सरकार और स्थानीय प्रशासन को अब और देर नहीं करनी चाहिए, वरना आने वाली पीढ़ियां इन परंपराओं को किताबों और तस्वीरों में ढूंढती रह जाएंगी।

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