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आषाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों मनाते हैं गुरु पूर्णिमा। बता रहे हैं सेलिब्रिटी एस्ट्रो गुरु डॉ शशि नारायण आचार्य

हरियाणा (सिरसा )आषाढ़ की पूर्णिमा को ही क्यों मनाते हैं गुरु पूर्णिमा। बता रहे हैं सेलिब्रिटी एस्ट्रो गुरु डॉ शशि नारायण आचार्य

         गुरु पुर्णिमा को लगभग सभी लोग धूमधाम से मनाते हैं। गुरु पूर्णिमा का अपना एक अलग ही महत्व और आकर्षण है। गुरु पुर्णिमा का ख्याल आते ही मन में एक श्रद्धा जाग जाती है । आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मानने का राज़ तुम्हें खयाल में आए, तो आषाढ़ की पूर्णिमा बड़ी अर्थपूर्ण हो जाएगी।*

           *और भी प्यारी पूर्णिमाएं हैं, शरद पूर्णिमा है, उसको क्यों नहीं चुन लिया?* । लेकिन नहीं, चुनने वालों का कोई खयाल है, कोई इशारा है। वह यह है कि *गुरु तो है पूर्णिमा जैसा, और शिष्य है आषाढ़ जैसा, बादलों जैसा। 


        शरद पूर्णिमा का चांद तो सुंदर होता है, क्योंकि आकाश खाली है। वहां शिष्य है ही नहीं, गुरु अकेला है। आषाढ़ में गुरु बादलों जैसा घिरा हो शिष्यों से।* 

           शिष्य सब तरह के हैं, जन्मों-जन्मों के अंधेरे को लेकर आ छाए हैं। वे अंधेरे बादल हैं, आषाढ़ का मौसम हैं। उसमें भी गुरु चांद की तरह चमक सके, उस अंधेरे से घिरे वातावरण में भी रोशनी पैदा कर सके, तो ही गुरु है। इसलिए आषाढ़ की पूर्णिमा! वह गुरु की तरफ भी इशारा है और उसमें शिष्य की तरफ भी इशारा है। और स्वभावत: दोनों का मिलन जहां हो, वहीं कोई सार्थकता है। 

             ध्यान रखना, अगर तुम्हें यह समझ में आ जाए, तुम आषाढ़ की तरह हो, अंधेरे बादल हो। न मालूम कितनी कामनाओं और वासनाओं का जल तुममें भरा है, और न मालूम कितने जन्मों-जन्मों के संस्कार लेकर तुम चल रहे हो, तुम बोझिल हो। तुम्हारे अंधेरे से घिरे हृदय में रोशनी पहुंचानी है। इसलिए पूर्णिमा की जरूरत है! 

               चांद जब पूरा हो जाता है, तब उसकी एक शीतलता है। *चांद को ही हमने गुरु के लिए चुना है। सूरज को चुन सकते थे, क्योंकि चांद के पास अपनी रोशनी नहीं है। इसे थोड़ा समझना होगा।* 

                *चांद की रोशनी उधार है। सूरज के पास अपनी रोशनी है।* चांद पर तो सूरज की रोशनी का प्रतिफलन होता है। जैसे कि तुम दीये को आईने के पास रख दो, तो आईने में से भी रोशनी आने लगती है। वह दीये की रोशनी का प्रतिफलन है, वापस लौटती रोशनी है। चांद तो केवल दर्पण का काम करता है, रोशनी सूरज की है। 

         *हमने गुरु को सूरज कहा होता, तो बात ज्यादा दिव्य और गरिमापूर्ण लगती। और सूरज के पास प्रकाश भी विराट है।* चांद के पास कोई बहुत बड़ा प्रकाश थोड़े ही है, बड़ा सीमित है। पर हमने सोचा है बहुत, सदियों तक, और तब हमने *चांद को चुना है -दो कारणों से। एक, गुरु के पास भी रोशनी अपनी नहीं है, परमात्मा की है। वह केवल प्रतिफलन है। वह जो दे रहा है, अपना नहीं है, वह केवल निमित्त मात्र है, वह केवल दर्पण है।* 

             तुम परमात्मा की तरफ सीधा नहीं देख पाते, सूरज की तरफ सीधे देखना भी बहुत मुश्किल है। प्रकाश की जगह आंखें अंधकार से भर जाएंगी। परमात्मा की तरफ भी सीधा देखना असंभव है। रोशनी ज्यादा है, बहुत ज्यादा है, तुम संभाल न पाओगे, असह्य हो जाएगी। तुम उसमें टूट जाओगे, खंडित हो जाओगे, विकसित न हो पाओगे।

          इसलिए हमने सूरज की बात छोड़ दी। वह थोड़ा ज्यादा है, शिष्य की सामर्थ्य के बिल्कुल बाहर है। इसलिए हमने बीच में गुरु को लिया है। 

            गुरु एक दर्पण है, पकड़ता है सूरज की रोशनी और तुम्हें दे देता है। लेकिन इस देने में वह रोशनी को मधुर और सहनीय बना देता है। इस देने में रोशनी की त्वरा और तीव्रता समाप्त हो जाती है। दर्पण को पार करने में रोशनी का गुणधर्म बदल जाता है। सूरज इतना प्रखर है, चांद इतना मधुर है। 

             इसीलिए तो कबीर ने कहा है, गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय। किसके छुऊं पैर? वह घड़ी आ गई, जब दोनों सामने खड़े हैं। फिर कबीर ने गुरु के ही पैर छुए, क्योंकि बलिहारी गुरु आपने, जो गोविंद दियो बताय। 

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*डाॅ नारायण*
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