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यहूदी जब बेबीलोन में निर्वासित जीवन जी रहे थे तो वहां की नदियों के तट पर बैठकर *येरूशलम* की ओर मुंह करके रोते थे और विरह गीत गाते थे ।


यहूदी जब बेबीलोन में निर्वासित जीवन जी रहे थे तो वहां की नदियों के तट पर बैठकर *येरूशलम* की ओर मुंह करके रोते थे और विरह गीत गाते थे ।


उन्होंने वहां सौगंध ले ली कि हम तब तक कोई आनंदोत्सव नहीं मनाएंगे जब तक कि हमें हमारा येरुशलम और जियान पर्वत दोबारा नहीं मिल जाता । 


50 सालों के निर्वासित जीवन में न कोई हर्ष, न गीत, न संगीत और सिर्फ़ अपनी मातृभूमि की वेदना...


इसकी तुलना अपने देश की संततियों से कीजिये। जिनके सामने पंजाब को फाड़ा, सिंध उजाड़ा, ढाका का भी माहौल बिगाड़ा, जो अफगानिस्तान से निकाले गए, जो पाकिस्तान से निकाले गए, जो बांग्लादेश से निकाले गए, जो कश्मीर से निकाले गए, क्या उनके अंदर अपनी उस भूमि के लिए कोई वेदना है ?


इन निर्वासितों की किसी संस्था को अखंड भारत के लिए कोई कार्यक्रम करते देखा या सुना है ?


अपने छोड़े गए शहर, पहाड़, नदी आदि की स्मृति को क्या उन्होंने किसी रूप में संजोया हुआ है ?


क्या कोई विरह गीत हम अपनी उस खो गई भूमि के लिए गाते हैं ?


क्या अपनी संततियों को समझाते हैं कि उनके दादा-पड़दादा को क्यों, कब और किसने कहाँ से निकाला था ?


मैं ये नहीं कहता कि इनमें से सब ऐसे ही हैं, पर जो ऐसे हैं वो बहुसंख्यक में हैं या फिर मान लीजिये कि कल को मैं मेरे जन्मस्थान से खदेड़ दिया गया तो क्या उसकी स्मृति को उसी तरह जी पाऊँगा जैसा बेबीलोन के निर्वासित यहूदी जीते थे...


शायद "नहीं"


एक *सभ्यता* के रूप में हमारी हार का सबसे बड़ा सबूत यही है कि न तो हमें भारत के अधूरे मानचित्र को देखकर दर्द होता है और न ही हमें हमारी खोई हुई भूमि, नदियां, पर्वत और लूटे धर्मस्थान पीड़ा देते हैं।

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